Home >> Opinion

20 July 2024   Admin Desk



बस्तर के आदि मानव का विकास

Age old Traditions of Bastar

पृथ्वी की उत्पत्ति 4.54 बिलियन वर्ष पहले हुई। प्रारंभिक गुरूत्वीय पतन के लगभग 500 मिलियन वर्ष बाद पृथ्वी का कोर बना। पृथ्वी ठंडी होकर जम गयी। उसके बाद ही पृथ्वी के भूभाग एवं समुद्र अस्तित्व में आए। पृथ्वी निर्माण के बाद एक कोषीय जीव (Unicellular) की विकास यात्रा प्रारंभ हुई। वह बहुकोषीय जीव (Multicellular) में बदला फिर बिना हड्डी वाले, हड्डी वाले, रेंगने वाले, स्तनधारी, चौपाये होते हुए पहला मनुष्य होमो सेपियन्स बना। 

भूभाग बनने के बाद ‘‘ बस्तर‘‘ का क्षेत्र भी अस्तित्व में आया। 39114 वर्ग कि.मी. बस्तर का क्षेत्र अंडाकार स्वरूप में है। 17.45 डिग्री उत्तरी आक्षांस 20 डिग्री 34 अंश के मध्य एवं 80 डिग्री 34 अंश के मध्य एवं 80 डिग्री 13 से पूर्वी देशांत से 82 डिग्री 15 पूर्वी देशांस में यह फैला हुआ है। जिसकी उत्तर से दक्षिण तक लंबाई - 290 कि.मी. एवं पूर्व से पश्चिम तक चौड़ाई - 200 कि.मी. है। 

आदिमानव की उत्पत्ति लगभग 4 लाख वर्ष पूर्व भूमध्यसागर से लेकर साइबेरिया तक के क्षेत्र में फैल गये थे। बस्तर में आदिमानव का विस्तारण लगभग 3 लाख वर्ष पूर्ण हुआ था। 

धीरे-धीरे उनका विस्तारण अन्य क्षेत्र में होने लगा। जिनका दिमाग होमोसेपियंस (बुद्धिमान प्रजाति, मानव सम्यता से निकट संबंध) से औसतन बड़ा था। 3 लाख वर्ष पहले बस्तर के आदिमानव नदी के किनारे पेड़ो पर, पहाड़ो की गुफाओं में निवास करते थे। जिससे उन्हें जंगली पशुओं से सुरक्षा मिलती थी। बस्तर के पहाड़ो में मुख्यतः आर्कियन पत्थर एवं दक्कन टेªप पत्थर है। बस्तर के आदिमानव कंद,मूल, फल, पत्तियां, फूल, मछली मारना, एवं जंगली जानवरों का आखेट कर उनके मांस का भक्षण करते थे। कहीं कहीं पर विशाल गुफाएं भी है जहां 500 तक आदिमानव का निवास था।  

आदिमानव के क्रमिक विकास के साथ-साथ वे समूह में रहने लगे। धीरे-धीरे क्रमशः वे खेती की ओर अग्रसर हुए एवं ‘‘पेंदा खेती‘‘ या‘‘ झूम खेती‘‘ Shifting Cultivation करने लगे। पुरे बस्तर में पहाड़ो और जंगलों की अधिवता थी। वे जंगलों को काटकर उसमें अनाज बोने का कार्य करते थे। धीरे-धीरे वे सामुहिक रहवास, अनाज भक्षण एवं वनो को काटे गये समतल भूमि पर मेड़ बनाने का काम करने लगे। 

आदिमानव का दिमाग होमोसेपियंस से ज्यादा तेज था। अतः वो जो सोचते उसे पत्थर में उकेरने भी लगे। पाषाण कालीन युग में वे औजार, हथियार, खेती करने की सामग्री बना चुके थे। 

बस्तर के घाट लोहंगा, देऊरगांव, बिंता, भटेवाड़ा, गढ चन्देला, चित्रकूट, आलोर, चन्देली, गांडागौरी, कोदागांव, उड़कुडा, गोटीटोला, बेवरती, गुमझीर आदि में पुराकाल के औजार, बर्तन, शस्त्र एवं शिलालेख आज भी विद्यमान है। 

कांकेर जिले के ग्राम उड़कुड़ा के पहाड़ी पर विद्यमान है ‘‘ जोगी दरबार‘‘ दरबार में तीन पत्थरों पर एक चौ़ड़ा विशालकाय पत्थर आच्छादित है। आदिवासी संस्कृति के अनुसार आज भी इस गुफा में 18 देवी देवताओं की अदृष्य बैठकें होती है। बताते है यह गुफा कभी पांडवों का आश्रय स्थल था। इस गुफा में आदिमानव द्वारा बनाये शैल चित्र उकेरे गये है। अपनी दैनंदिनी की बातों को इस शैल चित्र में प्रदर्शित किया गया है। गुफा के छत में भी हाथों का शैल चित्र है। ये शैल चित्र लगभग 12000 वर्ष पुराने हैं। 

कांकेर जिले के चन्देली व गोटीटोला ग्राम में पहाड़ो के गुफाओं पर भी आदिमानव द्वारा शैल चित्र बनाये गये है। जो प्रदर्शित करता है कि उन्हें समूह में रहने की आदत है, अकेले कहीं बाहर जाने पर पत्थरों के अस्त्र हाथों में लेकर निकलने की प्रवृत्ति हो गयी थी। शायद उन्हें जंगली जानवरों से मुठभेड़ की आशंका रही होगी। अस्त्र से वे उसका मुकाबला कर सकते थे। इन शैलचित्रों को 12000 वर्ष पूर्व का है। 

ग्राम गांडागौरी के राऊरपारा में जब आदिमानव का क्रमिक विकास के साथ गुफा छोड़ कर गांव बसाने के उपक्रम का ढांचा विद्यमान है। बहुत बड़े क्षेत्र में गांव बसाहट का पुरावशेष अभी भी स्थित है। पास के जंगल के पत्थरों पर सामूहिक अन्न कुटाई या वनोपजों से तेल या अन्य उपोत्पाद प्राप्त करने के लिये खल बत्ता जैसा पत्थरों पर बड़ा-बड़ा गढ्ढ़ा बनाया गया है। जिसमें एक ही चट्टान में कई गढ़ढ़ो पर अलग-अलग कुटाई सामूहिक रूप से होता था। 

आज राऊरपारा, गांडागौरी में आदिमानव के गांव के अवशेष विद्यमान है। यह लगभग 8000 से 10000 वर्ष पुराना है। 

बस्तर के आदिमानव के परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाती थी तो शव को जंगल में फेंक दिया जाता था। जिसे जंगली जानवर खा लिया करते थे। क्रमिक बौद्धिक विकास के बाद शवों को गढ्डे खोदकर दफनाने की प्रथा शुरू हुई। परिवार या समाज के सदस्यों के मृत्यु उपरांत गढ्डे खोदकर मिट्टी व पत्थरों से शव को दफन किया जाने लगा। यह प्रथा लगभग 3000 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई। शव के सिरहाने वाले भाग में एक बड़ा पत्थर गड़ा कर चिन्हित करने का कार्य किया जाता था। यह प्रथा आज भी बस्तर की विभिन्न संस्कृतियों में पाते हैं। 

कांकेर जिले के ग्राम मुड़पार में ये आज भी हैं। जो पुरातन काल का है। 

बस्तर के आदिमानव में शव को दाह संस्कार का कार्य 1300 ईसा पूर्व के आस-पास दर्ज किया गया। लंबे समय बाद यह एक आम प्रथा बनी। बस्तर में आदिमानव के क्रमिक विकास के साथ-साथ जाति, प्रजातियों में आबादी पृथक हो गयी जिसमें प्रमुख जाति-गोंड़,हल्बा,भतरा,मुरिया, माड़िया,दंडामी माड़िया, दोरला, धुरवा, गदबा एवं परजा है। 

बस्तर में आज भी विभिन्न जातियों में शव को दफनाने व दाह संस्कार की दोनों प्रथा चल रही है।

तोकापाल एवं बास्तानार विकास खंड में मुख्यतः माड़िया जनजाति में शवों को दफनाने या दाह संस्कार के बाद ‘‘ टोटेम‘‘ स्थापित करने का संस्कार है। अपने प्रिय व्यक्ति के अंतिम संस्कार के बाद परतदार चट्टानों से लगभग 6 फीट ऊंचा टोटेम बनाने का कार्य करते हैं। 1 या 2 फीट चौड़े पत्थरों को अंतिम संस्कार स्थल पर गड़ा कर उसमें चित्र उकेरे जाते है। यह चित्र कुल देवता, कुल वृक्ष, कुल पशु आदि के होते है। जिसे टोटेम कहा जाता है।

क्रमिक विकास के बाद अब आधुनिक खेती की ओर भी आदिवासी अग्रसर हैं। जिसमें ट्रेक्टर आदि का उपयोग कर रहे हैं। 




Photo Gallery

Advertisement

Trending News

Important Links

© Bharatiya Digital News. All Rights Reserved. Developed by TechnoDeva