मुर्गे को दक्षिण पूर्व एशिया में भारतीय लाल जंगली मुर्गा का वंशज माना जाता है। यह लगभग 2000 ईसा पूर्व का है जिसे धीरे-धीरे पालतू बनाया गया। इसकेअलावा सिंधु घाटी के भीतर मुर्गे मुर्गियों का उपयोग खेल में किया जाता था। मुर्गे का शाब्दिक अर्थ खतरे से अलग रहने वाला प्राणी खडे़ होकर आसन्न खतरे को भांपने वाला था।
मुर्गो की लड़ाई का प्रारंभिक चरण भारत, चीन, फारस, और अन्य पूर्वी देशों मे लोकप्रिय था। यह लगभग 524 से 460 ईसा पूर्व शुरू हुआ। युद्ध के पहले युनानियों द्वारा मुर्गा लड़ाई का प्रदर्शन सैनिको के उत्साह वर्धन एवं जोश भरने के लिये किया जाता था। सन् 1634 में मुर्गा मुर्गियों को खेल की वस्तु के रूप में दर्ज किया गया लेकिन 1607 मे इसके लड़ाई का उल्लेख मिलता है।
मुर्गो की लड़ाई एक खूनी खेल है जिसका कारण है कि मुर्गो द्वारा एक दूसरे को शारीरिक आघात पहुचाया जाता है। बस्तर के आदिमानव प्रायः जंगलों में स्थित पहाड़ो की गुफाओं में निवास करते थे। क्रमशः विकास के साथ वे सामुहिक रूप से वास करने लगे, साथ ही पशु पक्षी का पालन भी करने लगे।
अदिमानव के क्रमिक विकास यानि पूर्णतः तने (ERECT) हुए मानव भोजन की तलाश में वनो, नदियों में कंद, मूल, फल, फूल घांस इकट्ठा करने एवं मछली मारने जाया करते थे। तो दिनभर पशु पक्षी जंगलों में भोजन के लिये विचरण करते मगर रात्रिकालीन गुफाओं या गुफाओं के समीप वृक्षों पर वास करते।
शांम को जब मानव जंगल से वापस गुफा में आते तो पालतू मुर्गों को एक दूसरे से लड़ते देखा करते थे। बाद में मनोंरजन के लिए उनकी लड़ाई देखना शुरू किये। जो अनादिकाल तक चलता रहा।
वास्तव में दो मुर्गों के बीच लड़ाई का अभिप्राय स्वयं को दूसरे के सामने श्रेष्ठ साबित करना था। यह मुर्गों की लड़ाई थकान उतारने के लिये भी होती थी। यह लड़ाई परस्पर मुर्गों की थकान मिटाने के लिये होती थी साथ ही साथ मानवों के दिनभर की थकान मिटाने का भी मनोरंजन के साथ-साथ एक उपक्रम बन गया था। लगभग 3000 वर्ष पूर्व बस्तर में मुर्गा लड़ाई का दर्शन मिलता है। अदिवासियों का प्रमुख मनोरंजन का साधन नृत्य एंव गायन है उसके बाद ‘‘मुर्गा लड़ाई’’ का क्रम आता है।प्रारंभ में दो व्यक्तियों के मध्य खूनी संघर्ष का खेल खेला जाता था। दर्शक खूनी खेल में दांव लगाकर आनंद लेते थे। बाद में व्यक्तियों की लड़ाई को बंद करवाकर मुर्गों की लड़ाई प्रारंभ कर दी गयी। जिस पर दर्शको द्वारा दांव लगाया जाता रहा।बस्तर में मुर्गों को बाजार में लाकर सीधे ही लड़ाई नहीं करवाई जाती। 4-5 बजारों में मुर्गें को लाकर बाजार के अन्य उत्साहित मुर्गों को दिखाया जाता है। उसकी जोड़ तलाश की जाती है। बाजार की लड़ाई देख कर लाया गया मुर्गा उत्तेजित हो जाता है।उसके बाद दोनों पक्षों की सहमति से दोनों मुर्गों को लड़ाया जाता है।
बस्तर में केवल एक फसल धान की होती है। धान कटाई के बाद फुर्सत के पलों में ” मुर्गा लड़ाई “ का आनंद लेते है। समूचे बस्तर संभाग में यह लड़ाई होती है। मगर प्रमुख रूप से कांकेर, भानुप्रतापपुर, बीजापुर, दंतेवाड़ा, कोंटा, गीदम, बारसूर आदि में अधिकांशतः प्रचलित है। लगभग 200 वर्ष पूर्व से लड़ाई मुर्गों के दहिने पैर में नाखून के ऊपर ”कांती“ बांध दिया जाता है। जो लोहे का बहुत पतला धारदार वस्तु होता है। एक मुर्गें के वार करने पर दूसरे को चोट पहुंचती है। जवाब में दूसरा मुर्गां भी वार करता है। दोनों मुर्गे उछल-उछलकर एक दूसरे पर वार करते है। लहू लुहान का यह खेल प्रतिमाह बाजारों में खेला जाता है जिस पर दांव लगाकर जुआं खेला जाता है। जो कभी-कभी रू 1 करोड़ तक हो जाती है। जो मुर्गा घायल होकर मैदान छोड़ देता है उसे हारा हुआ माना जाता है।
मुर्गों के इस रण क्षेत्र को ”कूकड़ा घाली“ कहा जाता है। गोलाकार में बैरीकेटिंग होती है। जिसके बाहर से दर्शक बोली या दावं लगाकर जुआ खेलते है और आवाज लगा लगाकर अपने मुर्गे को प्रोत्साहित करते रहते है। दर्शकों की संख्या 500 से 1000 के बीच होती है।
पहले हारे हुए मुर्गे को जीतने वाले मुर्गे का स्वामी ”कांती“ का पैसा देकर अपने साथ ले जाता था।आजकल नये-नये नियम बन चुके है जैसे हारे हुए मुर्गें का एक टांग ”कांती“ वाला ले जाता है। शेष मुर्गा जीतने वाला ले जाता है।
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